Tuesday, August 14, 2012
Friday, May 1, 2009
राजनैतिक गोलबंदी और मतदाता
चुनाव २००९ कई मानो मे पिछले आम चुनावों से अलग हैं इस चुनाव मे सबसे बड़ा मुद्दा , सकारात्मक राजनैतिक मुद्दों का नाममात्र होना हैं. वैसे तो चुनाव मे नकारात्मक मुद्दों की कोई कमी नही हैं राजनीति के अपराधीकरण का जो स्वरूप इस चुनाव मे उभरा हैं ऐसा पहले कभी देखने को नजर नही आया था , इससे भी अजीब बात हैं कि , जिस तरह से राजनैतिक दल लोकलाज छोड़ कर राजनैतिक अनैतिकता और अपराध को महिमा मंडित कर रहे हैं , उससे साफ हैं कि राजनैतिक मूल्यों के पतन को लेकर राजनेताओं के दिल मे कोई अपराध -बोध नाम की चीज नही बची हैं . इस चुनाव का सबसे काला पक्ष - देश के स्थापित राजनेताओं का झूठ बोलना और पकडे जाने के बाद भी बड़ी बेशर्मी के साथ झूठ का संगरक्षण करना हैं , चुनाव २००९ के तीन चरण पूरे होने तक ऐसी अनेको तस्वीरे जनता के सामने आ चुकी हैं मिसाल के तौर पर किसी गहरी बात मे जाने के बजाए , केवल उन चीजो की ओर नजर डाली जाए जो शीशे की तरह साफ़ हैं तो इसका अनुमान लगाने मे देर नही लगेगी कि ,जो छुपा हुआ हैं ,वह क्या और कैसा हैं ?
चुनाव २००९ मे पहली बार यह देखने को मिला कि अधिकाँश राजनैतिक दल एक दूसरे के ख़िलाफ़ चुनावी मैदान मे जोर अजमाइश करते हुए या यह कह लीजिए कि एक दूसरे की बड़ी बेदर्दी के साथ धज्जिया बिखरते हुए भी एक -दूसरे के साथ बहुत मजबूत चुनावी गठबंधन का लगातार दावा कराने से बाज़ नही आ रहे हैं और यह बात केवल देश के दो बड़े राजनैतिक गठबंधन यूपीए और एनडी ए तक सिमित नही हैं बल्की तीसरे और चौथे मोरचे तक मे है मजेदार बात यह भी हैं कि ऐसे भी दल हैं जो एक साथ अलग -अलग दो-दो गठबंधन मे एक हैं जैसे श्री राम विलास पासवान की सदारत वाली पार्टी लोकजन शक्ति पार्टी ,श्री लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल जो श्री मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के साथ तालमेल करके यूं पी ए के सबसे बड़े घटक काग्रेस के ख़िलाफ़ उत्तरप्रदेश,बिहार ,झारखंड मे पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ रहे हैं परन्तु यूं पी ए के साथ उनके रिश्ते बरकरार हैं ऐसा ही अजूबा एन डी ए मे भी हैं उसके घटक दल भारतीय जनता पार्टी , जनता दल { यूं } शिवसेना कई जगहों मे खुलेतौर पर एक दूसरे के ख़िलाफ़ मैदानी जंग मे हैं परन्तु उनका गठबंधन यथावत हैं इसके साथ - साथ प्रधानमंत्री पद के लिए बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो सुश्री मायावती को सबसे योग्य मानने और बताने वाले वामपंथी भी इसके अपवाद नही हैं जगह -जगह उनके तीसरे मोर्चे और उनके मनपसंदीदा प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के दल एक दूसरे के सामने हैं , केन्द्र मे काग्रेस की सरकार का समर्थन कर रही समाजवादी पार्टी भी चुनाव मे भले ही काग्रेस के ख़िलाफ़ हो किंतु यदि सत्ता के लिए जरुरत हुई तो एक दूसरे से हाथ मिलाने से इनकार नही करती हैं ऐसी अनैतिक गोलबंदी राजनीति मे अतीत मे कभी देखने को नही मिली , सत्ता की पिपासा या परिवर्तन की भूख ने १९८९ ,और उसके बाद बदलती सरकारों मे भी दिखा था ,स्व.वी.पी.सिंह ,स्व.चंदशेखर जी ,श्री इन्द्र कुमार गुजराल , श्री देवगौडा ने सरकार के लिए अनेक पक्षों से हाथ मिलाये थे फ़िर भी इतना झूक कर नही .
सच तो यह है कि , चुनाव २००९ मे गोलबंदी मतदाताओ के बीच नही बल्की राजनैतिक दलो के बीच हैं राजनैतिक दलो या राजनेताओं के बीच की सहमति का आधार कोई राजनैतिक मूल्य या विचारधारा नही अपितु सिर्फ़ सत्ता हैं और इससे भी ज्यादा दूखद हैं कि राजनेताओं द्वारा सरे आम विचारों और मूल्यों की नीलामी पर उनके दलो के राजनैतिक कार्यकर्ताओं तक को कोई आपत्ति नही हैं । मतदाताओ के विश्वास की ऐसी खरीद - फरोख्त के शायद चुनावी इतिहास मे पहले कभी नही हुई थी .
चुनाव २००९ मे पहली बार यह देखने को मिला कि अधिकाँश राजनैतिक दल एक दूसरे के ख़िलाफ़ चुनावी मैदान मे जोर अजमाइश करते हुए या यह कह लीजिए कि एक दूसरे की बड़ी बेदर्दी के साथ धज्जिया बिखरते हुए भी एक -दूसरे के साथ बहुत मजबूत चुनावी गठबंधन का लगातार दावा कराने से बाज़ नही आ रहे हैं और यह बात केवल देश के दो बड़े राजनैतिक गठबंधन यूपीए और एनडी ए तक सिमित नही हैं बल्की तीसरे और चौथे मोरचे तक मे है मजेदार बात यह भी हैं कि ऐसे भी दल हैं जो एक साथ अलग -अलग दो-दो गठबंधन मे एक हैं जैसे श्री राम विलास पासवान की सदारत वाली पार्टी लोकजन शक्ति पार्टी ,श्री लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल जो श्री मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के साथ तालमेल करके यूं पी ए के सबसे बड़े घटक काग्रेस के ख़िलाफ़ उत्तरप्रदेश,बिहार ,झारखंड मे पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ रहे हैं परन्तु यूं पी ए के साथ उनके रिश्ते बरकरार हैं ऐसा ही अजूबा एन डी ए मे भी हैं उसके घटक दल भारतीय जनता पार्टी , जनता दल { यूं } शिवसेना कई जगहों मे खुलेतौर पर एक दूसरे के ख़िलाफ़ मैदानी जंग मे हैं परन्तु उनका गठबंधन यथावत हैं इसके साथ - साथ प्रधानमंत्री पद के लिए बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो सुश्री मायावती को सबसे योग्य मानने और बताने वाले वामपंथी भी इसके अपवाद नही हैं जगह -जगह उनके तीसरे मोर्चे और उनके मनपसंदीदा प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के दल एक दूसरे के सामने हैं , केन्द्र मे काग्रेस की सरकार का समर्थन कर रही समाजवादी पार्टी भी चुनाव मे भले ही काग्रेस के ख़िलाफ़ हो किंतु यदि सत्ता के लिए जरुरत हुई तो एक दूसरे से हाथ मिलाने से इनकार नही करती हैं ऐसी अनैतिक गोलबंदी राजनीति मे अतीत मे कभी देखने को नही मिली , सत्ता की पिपासा या परिवर्तन की भूख ने १९८९ ,और उसके बाद बदलती सरकारों मे भी दिखा था ,स्व.वी.पी.सिंह ,स्व.चंदशेखर जी ,श्री इन्द्र कुमार गुजराल , श्री देवगौडा ने सरकार के लिए अनेक पक्षों से हाथ मिलाये थे फ़िर भी इतना झूक कर नही .
सच तो यह है कि , चुनाव २००९ मे गोलबंदी मतदाताओ के बीच नही बल्की राजनैतिक दलो के बीच हैं राजनैतिक दलो या राजनेताओं के बीच की सहमति का आधार कोई राजनैतिक मूल्य या विचारधारा नही अपितु सिर्फ़ सत्ता हैं और इससे भी ज्यादा दूखद हैं कि राजनेताओं द्वारा सरे आम विचारों और मूल्यों की नीलामी पर उनके दलो के राजनैतिक कार्यकर्ताओं तक को कोई आपत्ति नही हैं । मतदाताओ के विश्वास की ऐसी खरीद - फरोख्त के शायद चुनावी इतिहास मे पहले कभी नही हुई थी .
चुनावी आंधी - गांधी ही गाधी
आम चुनाव २००९ मे सैकड़ो ऐसे चुनावी योद्दा है जो अपनी विशिष्ठ शैली के कारण जनाकर्षण के केन्द्र बने हुए हैं ,भारतीय जनता पार्टी के पी.एम.इन वेटिग श्री लालकृष्ण अडवानी , काग्रेसी प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह , वामपंथी नेता प्रकाश कारत , गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी , बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार , बहुजन समाज पार्टी की नेता और उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती , समाजवादी पार्टी के प्रमुख नेता बन चुके सपा महासचिव अमर सिंह , राष्ट्रीय जनता दल के नेता और रेल मंत्री श्री लालू प्रसाद यादव , फिल्मी अदाकार - अदाकारा हेमा मालिनी , संजय दत्त , सलमान खान , और प्रदेश की राजनीति मे जबरजस्त दखल और असर रखने वाले नेता लोकजन शक्ति के रामविलास पासवान , छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री रमन सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ,तमिलनाडू के वर्त्तमान और पूर्व मुख्यमंत्री करूणानिधि और सुश्री जयललिता , आंध्रा के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रा बाबू नायडू और इनके समकक्ष अन्य ढेर सारे नेता गण यथा एन .सी .पी .नेता शरद पवार प्रधानमंत्री पद की होड़ मे नाम उछलने , बीजू जनता दल के नेता, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक एन.डी.ए.से नाता तोड़ने , एन .डी.ए.के संयोजक रह चुके जॉर्ज फर्नाडिस टिकिट मिलने के बजाए टिकिट कटने और निर्दलीय चुनाव लड़ने के कारण , विभिन्न तरह की चुनावी चर्चा मे हैं , परन्तु चुनाव २००९ के प्रचार की के दौरान ,जिसने बाजी मारी वह नेहरू -गांधी परिवार हैं । काग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी , काग्रेस के महासचिव श्री राहुल गांधी , काग्रेसी प्रचारक श्रीमती प्रिंयका गांधी , भाजपा नेत्री मेनका गाधी ,उनके सुपुत्र श्री वरुण गांधी अपनी -अपनी शैली के कारण सबसे ज्यादा चर्चा का विषय बने रहे हैं चाहे प्रसंशा हो या विरोध दोनों की अगुवायी इसी खानदान के हाथो रही हैं . २००९ की चुनावी आंधी मे गांधी ही गांधी छाये रहे इसमे कोई दो राय नही है ,अब परिणाम ही तय करेगे की काग्रेसी गांधी और भाजपायी गांधी मे कौन ज्यादा सफल रहा हैं .
Friday, March 13, 2009
विभाजित मानसिकता और बिखरता लोकतंत्र
आम चुनाव २००९ मतदाताओ के लिए अत्यंत कठिन चुनौती होने के बाबजूद भी राजनैतिक - असमंजस के कारण , मतदाता भ्रमित हैं , मजबूत राजनैतिक दलो का जोर चुनाव को - मुद्दे के बजाये व्यक्ति आधारित ऐसा चुनाव बनने मे हैं जिसकी एक सिरा सरकारी गठबंधन और दूसरा सिरा प्रमुख विपक्षी गठजोड़ के हाथ मे हो , चुनावी असमंजसता इससे ज्यादा क्या हो सकती हैं कि , कथित राष्ट्रीय दल ,अकेले अपने बल - बूते चुनाव जीतने मे स्वंय को लाचार महसूस कर रहे हैं इसके चलते , सत्ता पर काबिज होने के लिए ' बेमेलो के मेल ' का चुनावी राजनैतिक संगम , मतदाताओं के राजनैतिक स्नान के लिए घाट बनाने की जुगत मे जोर - शोर से लगा हुआ है
सत्ता की हवस मे डूबे राजनेताओं और राजनैतिक दलों के सामने न तो कोई मान्य वसूल हैं , न , ही कोई सोच हैं कि , सत्ता आने के बाद वे देश को किस दिशा मे ले जायेगे ? जब राजनैतिक उदेश्य और लक्ष्य ही अस्पष्ट हो तो देश को कोई सार्थक दिशा मे ले जाने कि कल्पना व्यर्थ हैं .आम चुनाव मे जीत की दावेदारी के साथ सामने अभी तक आए तीन बड़े गठबधन , राजनैतिक मनोरंजन तो कर सकते हैं परन्तु कोई परिवर्तन हो इसकी संभावना धूमिल हैं .समाजवादी विचारक डा० राम मनोहर लोहिया ' वोट को बदलाव का औजार' मानते थे परन्तु शायद उनकी कल्पना , दिशा -विहीन , मूल्यहीन , अवसरवादी और सत्ता परक राजनीति को लेकर नही थी , एक दूसरे के ख़िलाफ़ ढोल पीटकर अपने उम्मीदवार खड़ा कराने के बाद भी राजनैतिक भाई - चारा और एकता की दुहाई के साथ देश को प्रगति के शिखर की और ले जाने के दावे - प्रतिदावे को देखकर शायद गैर काग्रेसवाद के जनक परिवर्तन के सिद्वांत पर गौर करने पर मजबूर हो जाते कि दिशाविहीन बदलाव देश को कहा ले जायेगा और ऐसे बेसुरे राजनैतिक ताल -वेताल से लोकतंत्र कितना बेहाल हो जायेगा ? पर आज के राजनेताओ के पास इस बिन्दु पर चितन करने का समय ही कहा हैं ? देश या प्रजा इसकी किसको पड़ी हैं ? चिंता तो केवल यह हैं कि वे ख़ुद कहा होगे ? भारतीय संसदीय चुनाव मे इतनी गिरावट कभी देखने मे नही आयी थी ? इससे इतना जरुर साफ़ हैं कि , लोकतंत्र परिपक्व होने के बजाये कमजोर हुआ हैं जो देश और जनता के हित साधन के बजाये कुछ लोगो के व्यक्तिगत स्वार्थो की पूर्ति के लिए सीढ़ी बनकर रह गया हैं .
१९५२ से जारी चुनावी सफर का , आम चुनाव २००९ सबसे कमजोर पड़ाव हैं , शायद यह पहला ऐसा चुनाव हैं जिसकी कोई वैचारिक दिशा नही हैं , राजनैतिक मुद्दों का इतना अभाव हैं कि विचारो और मुद्दों की जगह राजनैतिक लतीफेबाजी और शागूफेबाज़ी ने ले ली हैं हर दल की दिल्ली ख्वाहिश हैं कि मतदाता अपनी और दूसरो की तमाम समस्याओं को भूलकर उनकी नकली अदाओं पर लट्टू हो जाये . अपनी नैतिक कमजोरी छुपाने की दलो की भोडी कोशिशों से पैदा हुई - राजनैतिक असमंजसता का सबसे ज्यादा नुकसान मतदाताओ को ही होना हैं इसलिए मतदाताओ को इससे सावधान रहना चाहिए , यह भी सही हैं कि दलो मे सुधार हो ,इसके लिए मतदाताओ के पास कोई ठोस विकल्प नही हैं , परन्तु सिमित विकल्पों के बुद्धिमानी पूर्ण प्रयोग से बहुत कुछ बच जाने का विकल्प मतदाताओ के पास जरुर हैं और उन्हें बेहिचक अपनी इस शक्ति का उपयोग आम चुनाव २००९ मे करना चाहिए . ताकि विभाजित राजनैतिक मानसिकता और बिखरते लोकतंत्र को सही दिशा मे ले जाने के लिए अवसर मतदाताओं के हाथ मे बने रह सके .
सत्ता की हवस मे डूबे राजनेताओं और राजनैतिक दलों के सामने न तो कोई मान्य वसूल हैं , न , ही कोई सोच हैं कि , सत्ता आने के बाद वे देश को किस दिशा मे ले जायेगे ? जब राजनैतिक उदेश्य और लक्ष्य ही अस्पष्ट हो तो देश को कोई सार्थक दिशा मे ले जाने कि कल्पना व्यर्थ हैं .आम चुनाव मे जीत की दावेदारी के साथ सामने अभी तक आए तीन बड़े गठबधन , राजनैतिक मनोरंजन तो कर सकते हैं परन्तु कोई परिवर्तन हो इसकी संभावना धूमिल हैं .समाजवादी विचारक डा० राम मनोहर लोहिया ' वोट को बदलाव का औजार' मानते थे परन्तु शायद उनकी कल्पना , दिशा -विहीन , मूल्यहीन , अवसरवादी और सत्ता परक राजनीति को लेकर नही थी , एक दूसरे के ख़िलाफ़ ढोल पीटकर अपने उम्मीदवार खड़ा कराने के बाद भी राजनैतिक भाई - चारा और एकता की दुहाई के साथ देश को प्रगति के शिखर की और ले जाने के दावे - प्रतिदावे को देखकर शायद गैर काग्रेसवाद के जनक परिवर्तन के सिद्वांत पर गौर करने पर मजबूर हो जाते कि दिशाविहीन बदलाव देश को कहा ले जायेगा और ऐसे बेसुरे राजनैतिक ताल -वेताल से लोकतंत्र कितना बेहाल हो जायेगा ? पर आज के राजनेताओ के पास इस बिन्दु पर चितन करने का समय ही कहा हैं ? देश या प्रजा इसकी किसको पड़ी हैं ? चिंता तो केवल यह हैं कि वे ख़ुद कहा होगे ? भारतीय संसदीय चुनाव मे इतनी गिरावट कभी देखने मे नही आयी थी ? इससे इतना जरुर साफ़ हैं कि , लोकतंत्र परिपक्व होने के बजाये कमजोर हुआ हैं जो देश और जनता के हित साधन के बजाये कुछ लोगो के व्यक्तिगत स्वार्थो की पूर्ति के लिए सीढ़ी बनकर रह गया हैं .
१९५२ से जारी चुनावी सफर का , आम चुनाव २००९ सबसे कमजोर पड़ाव हैं , शायद यह पहला ऐसा चुनाव हैं जिसकी कोई वैचारिक दिशा नही हैं , राजनैतिक मुद्दों का इतना अभाव हैं कि विचारो और मुद्दों की जगह राजनैतिक लतीफेबाजी और शागूफेबाज़ी ने ले ली हैं हर दल की दिल्ली ख्वाहिश हैं कि मतदाता अपनी और दूसरो की तमाम समस्याओं को भूलकर उनकी नकली अदाओं पर लट्टू हो जाये . अपनी नैतिक कमजोरी छुपाने की दलो की भोडी कोशिशों से पैदा हुई - राजनैतिक असमंजसता का सबसे ज्यादा नुकसान मतदाताओ को ही होना हैं इसलिए मतदाताओ को इससे सावधान रहना चाहिए , यह भी सही हैं कि दलो मे सुधार हो ,इसके लिए मतदाताओ के पास कोई ठोस विकल्प नही हैं , परन्तु सिमित विकल्पों के बुद्धिमानी पूर्ण प्रयोग से बहुत कुछ बच जाने का विकल्प मतदाताओ के पास जरुर हैं और उन्हें बेहिचक अपनी इस शक्ति का उपयोग आम चुनाव २००९ मे करना चाहिए . ताकि विभाजित राजनैतिक मानसिकता और बिखरते लोकतंत्र को सही दिशा मे ले जाने के लिए अवसर मतदाताओं के हाथ मे बने रह सके .
Friday, February 13, 2009
आम चुनाव 2009
लोकसभा चुनाव २००९ , भारतीय राजनीति का अहम् पड़ाव हैं , अतीत के खट्टे - मीठे अनुभवों को अपने दामन मे , संजोये चुनाव२००९ , मात्र दलों की जय - विजय तक नही सिमित हैं , बल्की भारत के राजनीति भविष्य के साथ ही देश की दशा और दिशा तय करने के लिए , भारतीय मतदाताओ के लिए एक चुनौती हैं , क्योकि भारत की राजनीति उस मुकाम पर जा पहुच चुकी हैं ,जहा विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र ,और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की साख दाव पर लगी हुई हैं , इस चुनाव के नतीजे से , जो नए राजनैतिक समीकरण बनाने वाले हैं. वह - "बनो या फ़िर बिगडो " वाले हैं , इसलिए, इस बार मतदाताओ को , राजनेता या राजनैतिक दल के बजाए लोकतंत्र और देश के भविष्य के लिए मतदान करना हैं ।
हर आम चुनाव की तरह ,आम - चुनाव २००९ , के कुछ मुद्दे साफ़ हैं :--
१/ आर्थिक मंदी ,और आर्थिक - सुरक्षा
२/ आतंकवाद और आतंरिक सुरक्षा
३/ भ्रष्टाचार का खात्मा , अपराधो मे कमी
४/सदभावना , एकता , बराबरी
५/ जनसंख्या , रोजगार , विकास
६/ राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय कर्तव्य
७/ धर्म , जातीय , मानवीय और अन्य भावनात्मक मुद्दे
सियासी हालात से लगता हैं कि , आम चुनाव २००९ मे मत बटोरने के लिए ,राजनैतिक - प्रयास , पुराने ढर्रे पर ही चलने वाले हैं , राजनीतिक दल और उम्मीदवार , चुनावी कामयाबी के आजमाए हुए , नुस्खे , मे कोई ख़ास फेर -बदल नही करने वाले हैं । " हमेशा की तरह ख़ुद को सबसे बेहतर बताते हुए , और स्वंय को , मत और सत्ता का हकदार जताते हुए ," वादों और आश्वासनों की बरसात करने की चुनावी रस्म , दलो और उम्मीदवारों की राजनैतिक परिपाटी रही हैं । जिसे पूरे जोश और खरोश के साथ इस बार भी निभाया जाना हैं .
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि--मतदाताओ को उम्मीदवारों मे से किसी एक को चुनने का अधिकार तो हैं , परन्तु उनका उम्मीदवार कौन हो या कैसा हो ? इसे तय करने मे उनकी कोई भूमिका नही हैं .और न ही ऐसा हो , इसके लिए , राजनैतिक दलो ने , मतदाताओ को कोई अधिकार ही दिया हैं . उम्मीदवार कौन हो या तो दल , या फ़िर किसी का चुनाव -लड़ने का व्यक्तिगत निर्णय ही तय करता हैं कि , वह उम्मीदवार हैं और उसे चुनाव मे भाग्य आजमाना हैं . यही कमी , सब कमियों की जड़ हैं . क्योकि पैसो का खेल सबकी आँखों पर पट्टी बाँध देता हैं . और साथ ही आम - आदमी के राजनीति मे भागीदारी को सिमित कर देता हैं -- पद्भ्रष्ट हो चुकी --राजनीति मूल्य विहीनता के चरम पर हैं .ऐसे मे यह स्वीकार करने मे कि - "राजनैतिक दल , जिम्मेदारी के साथ , लोकहित मे काम करेगे , हिचकिचाहट स्वाभाविक हैं .सत्ता-शक्ति के सुख की प्राप्ति के लिए प्रत्यनशील , उम्मीदवारों और दलो का लक्ष्य -- सफलता हैं और कामयाबी के लिए , राजनैतिक गुणवत्ता , नैतिकता , वैचारिक मूल्य का प्रश्न उनके सामने कोई माने नही रखते हैं .अन्यथा राजनैतिक पतन का मुद्दा ही नही उठता ? जब राजनीतिक दल , किसी भी तरह से सफ़लता की प्राप्ति को , अपना मापदंड बनायेगे और उम्मीदवार कामयाबी के लिए , किसी भी तरह की कोशिश से बाज़ नही आयेगे , तो , उसके बाद , जब वह चुनाव जीत कर , जनता का नुमाइंदा बनकर , नुमाइंदगी करने के लिए जायेगा , तो सारी की सारी चुनावी गन्दगी उसके साथ जाएगी और वह ख़ुद , नीतियों ,शुचिता , साधन की पवित्रता , वैचारिक मूल्यों के प्रति , इसलिए ईमानदारी नही बरत पायेगा कि वह , निजी तौर पर , सदाचार को अपनी विजय का कारण नही मानता हैं .और यह राजनैतिक अधकचरापन समस्याओं से कभी भी उबरने नही देगा .और इन सबसे बचने के लिए अपनी और भविष्य की खुशहाली के लिए ,मतदाताओ को भी , उन राजनैतिक जालो को काटना होगा जिसके फंदे मे लोकतंत्र आ फसा हैं । और इससे बचने के लिए एक रास्ता हैं कि भारतीय मतदाताओ का विवेक ,आम चुनाव २००९ ,भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने मे सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करने के साथ - साथ , आने वाले दिनों के लिए राजनैतिक - जाग्रति की नयी नजीरे भी लिखने मे कामयाब रहे .
हर आम चुनाव की तरह ,आम - चुनाव २००९ , के कुछ मुद्दे साफ़ हैं :--
१/ आर्थिक मंदी ,और आर्थिक - सुरक्षा
२/ आतंकवाद और आतंरिक सुरक्षा
३/ भ्रष्टाचार का खात्मा , अपराधो मे कमी
४/सदभावना , एकता , बराबरी
५/ जनसंख्या , रोजगार , विकास
६/ राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय कर्तव्य
७/ धर्म , जातीय , मानवीय और अन्य भावनात्मक मुद्दे
सियासी हालात से लगता हैं कि , आम चुनाव २००९ मे मत बटोरने के लिए ,राजनैतिक - प्रयास , पुराने ढर्रे पर ही चलने वाले हैं , राजनीतिक दल और उम्मीदवार , चुनावी कामयाबी के आजमाए हुए , नुस्खे , मे कोई ख़ास फेर -बदल नही करने वाले हैं । " हमेशा की तरह ख़ुद को सबसे बेहतर बताते हुए , और स्वंय को , मत और सत्ता का हकदार जताते हुए ," वादों और आश्वासनों की बरसात करने की चुनावी रस्म , दलो और उम्मीदवारों की राजनैतिक परिपाटी रही हैं । जिसे पूरे जोश और खरोश के साथ इस बार भी निभाया जाना हैं .
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि--मतदाताओ को उम्मीदवारों मे से किसी एक को चुनने का अधिकार तो हैं , परन्तु उनका उम्मीदवार कौन हो या कैसा हो ? इसे तय करने मे उनकी कोई भूमिका नही हैं .और न ही ऐसा हो , इसके लिए , राजनैतिक दलो ने , मतदाताओ को कोई अधिकार ही दिया हैं . उम्मीदवार कौन हो या तो दल , या फ़िर किसी का चुनाव -लड़ने का व्यक्तिगत निर्णय ही तय करता हैं कि , वह उम्मीदवार हैं और उसे चुनाव मे भाग्य आजमाना हैं . यही कमी , सब कमियों की जड़ हैं . क्योकि पैसो का खेल सबकी आँखों पर पट्टी बाँध देता हैं . और साथ ही आम - आदमी के राजनीति मे भागीदारी को सिमित कर देता हैं -- पद्भ्रष्ट हो चुकी --राजनीति मूल्य विहीनता के चरम पर हैं .ऐसे मे यह स्वीकार करने मे कि - "राजनैतिक दल , जिम्मेदारी के साथ , लोकहित मे काम करेगे , हिचकिचाहट स्वाभाविक हैं .सत्ता-शक्ति के सुख की प्राप्ति के लिए प्रत्यनशील , उम्मीदवारों और दलो का लक्ष्य -- सफलता हैं और कामयाबी के लिए , राजनैतिक गुणवत्ता , नैतिकता , वैचारिक मूल्य का प्रश्न उनके सामने कोई माने नही रखते हैं .अन्यथा राजनैतिक पतन का मुद्दा ही नही उठता ? जब राजनीतिक दल , किसी भी तरह से सफ़लता की प्राप्ति को , अपना मापदंड बनायेगे और उम्मीदवार कामयाबी के लिए , किसी भी तरह की कोशिश से बाज़ नही आयेगे , तो , उसके बाद , जब वह चुनाव जीत कर , जनता का नुमाइंदा बनकर , नुमाइंदगी करने के लिए जायेगा , तो सारी की सारी चुनावी गन्दगी उसके साथ जाएगी और वह ख़ुद , नीतियों ,शुचिता , साधन की पवित्रता , वैचारिक मूल्यों के प्रति , इसलिए ईमानदारी नही बरत पायेगा कि वह , निजी तौर पर , सदाचार को अपनी विजय का कारण नही मानता हैं .और यह राजनैतिक अधकचरापन समस्याओं से कभी भी उबरने नही देगा .और इन सबसे बचने के लिए अपनी और भविष्य की खुशहाली के लिए ,मतदाताओ को भी , उन राजनैतिक जालो को काटना होगा जिसके फंदे मे लोकतंत्र आ फसा हैं । और इससे बचने के लिए एक रास्ता हैं कि भारतीय मतदाताओ का विवेक ,आम चुनाव २००९ ,भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने मे सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करने के साथ - साथ , आने वाले दिनों के लिए राजनैतिक - जाग्रति की नयी नजीरे भी लिखने मे कामयाब रहे .
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